
मेरे पास बाहरी दुनिया में व्यस्त रहने के लिए दशक भर से कोई ठोस कारण शेष न था। बस चला जा रहा था बेमकसद। जिए जा रहा था निरुद्देश्य।
संसार में जो कुछ दिख रहा था वह कहीं से रंच मात्र आकर्षित न कर रहा था। जैसे सब कुछ जान चुका होऊं। अंदर की यात्रा आनन्द देने लगी थी। बार बार खुद को T पॉइंट पर पाता। पर हिम्मत न कर पाता। बनी बनाई लीक पर चल पड़ता। संसार में दिल लगाने के लिए अपने पास बस एक तरीका था। मदहोश हो जाना।
पर मदिरा ने भी आनन्द देना बंद कर दिया। जैसे सब कुछ ओर छोर समझ चुका होऊं। कुछ भी न प्लान करता क्योंकि जो प्लान करके हासिल हो सकता, उसमें हासिल जैसा कुछ दिखता नहीं जिससे प्लान करने का आवेग पैदा हो पाता।
अतीतजीवी कभी रहा नहीं। कुछ भी गांठ बांध कर न रखा। बहता रहा हर पल। कभी लगता जैसे वर्तमान की घड़ी का मैं ही कांटा हूँ। एकदम तत्काल में जीता। अतीत और भविष्य झर जाए तो बस तत्काल बचता है। कहीं बैठे बैठे आंख बंद कर लूं तो बिना वक़्त लगे इस बाहरी दुनिया से गायब हो जाऊं। देह बस रह जाता बाहर। चेतना अपनी यात्रा पर निकल पड़ता।
ध्यान मेरे लिए अध्यात्म नहीं है। वह एक जरिया है खुद को जिंदा रखने के लिए। उसके जरिए जो आंतरिक यात्रा कर पाता हूँ, बाहरी जगत से खुद को जो डिटैच रख पाता हूँ, वह एक जीवन सूत्र सरीखा हो चला है। इसे किसी से कह नहीं सकता। समझा नहीं पाता। बस महसूस कर सकता हूँ।
मेरे पास बाहरी दुनिया में सक्रिय रहने के लिए कोई बात विचार तर्क बहाना लक्ष्य नहीं शेष है। मुझे सड़े हुए जीवन से मुक्ति चाहिए। मुझे नया नाम नया वस्त्र नई संगति नई जीवन शैली चाहिए। इसे पाने लगा हूँ।
अब जो T पॉइंट पर खड़ा हूँ तो सुविधावश पुरानी राह की दिशा की तरफ न मुड़ जाऊंगा। नए अनजाने उस राह पर चलूंगा जहां जाने को दिल जैसे जनम जनम से आतुर हो पर जाने कौन रोके हुए हैं।
अब तो यूँ दीवानगी है कि कोई हंसें तो खुद को हंसता पाऊं, कोई रोए तो खुद को रोता पाऊं। सबमें तो तू ही तू। चींटी हाथी पेड़ मिट्टी आसमान समंदर सब तो तू ही तू। सब तो मेरे में। सब तो तेरे में। जब शब्द कम पड़ जाएं, जब मौन ज्यादा अर्थवान हो जाए, जब आंख मूंद कर कहीं भी यूँ ही बैठे रहना सबसे कीमती लगने लगे तो भला ऐसे पागल को कोई क्या समझा लेगा, कोई क्या समझ सकेगा।
जब यह सब लिख रहा हूँ तो एक अनजाने संसार के साथ हौले हौले चल रहा हूँ। ट्रेन में हूँ। हर अपरिचित जो है परिचित है। यहां कोई ऐसा नहीं जिसे नहीं जानता। पर ट्रेन में चढ़ा अकेले ही हूँ। खुद को सबमें देख रहा हूँ। ये ट्रेन भी मैं ही हूँ। ड्राइवर भी मैं ही। ट्रेन के बाहर किसिम किसिम के जिले नगर गांव मैं ही। सबकी नींद मैं ही हूँ। खुद का जागना मैं ही हूँ।
मुझे किसी को कुछ नहीं समझाना। मैं खुद से बातें करता हूँ क्योंकि दूसरों से जो बातें होती हैं वो निरर्थक होती हैं, सारहीन, फिजूल, टाइम पास बकबक होती है।
दरअसल जीवन शुरू किया ही अब हूँ। एक नए जीवन का शिशु हूँ। इस शिशु की नज़र में हर कुछ बस मूविंग ऑब्जेक्ट है और हर मूविंग ऑब्जेक्ट को देख मुस्कान आती है, फिर खुद ब खुद आंख बंद हो नींद आ जाती है।
शिशु को प्यार दो, दुलार दो!
द्वारा स्वामी भड़ासानंद यशवंत
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